मार्च 19, 2013

मैं....मेरा दिल.... और मंज़िल


प्रिय ब्लॉगर साथियों, 

आज एक नज़्म पेश-ए-खिदमत है .....इसे दुबारा पोस्ट कर रह हूँ इस उम्मीद में की आप फिर से इसका भरपूर लुत्फ़ लें और कुछ कदरन नए पाठक भी इसे पढ़ पायें । नज़्म का शीर्षक है ' मैं, मेरा दिल और मंज़िल' जैसे नाम से ज़ाहिर है नज़्म में मंज़िल को लेकर 'मैं और मेरे दिल' के बीच की कशमकश है...........शायद कुछ लम्बी हो गयी है आपसे दरख्वास्त है की थोडा सा वक़्त दे कर इसे पूरा ज़रूर पढ़े...............बाकी आपको कैसी लगी ये ज़रूर बताएं - 
न जाने क्यूँ कभी कभी ये ख्याल दिल में आता है की निकल पडूँ
किसी ऐसी जगह जहाँ दुनिया का गम न हो 
और न हो किसी की जुस्तजू
मगर इस दिल का क्या करूँ, शायद वहाँ भी न लगे
और माँगे कुछ दर्द, जो जाने हो या अनजाने 
कुछ आदत सी हो गयी है इस वीराने दिल को दर्द की
हर घड़ी, हर पल बेचैन सा क्यूँ रहता है ये दिल
न जाने कब कहाँ जाकर ख़त्म होगा ये सफ़र?
कहने को तो कट ही जायेगा ये सफ़र कभी न कभी
मगर क्या सुकूँ मिलेगा इस दिल को ख़ाकसार होने के बाद भी?

हर रात को ये दिल मेरा कहता है मुझसे कि ए ! मुसाफिर
तू इसलिए नहीं बना कि यूँ पैरों में बेड़ियाँ डाल कर पड़ा रह
और मनाता रहे मातम कि लगता ही नहीं दिल कहीं 
आज़ाद परिंदों कि तरह परवाज़ ही तेरा मुक़द्दर है 
परवाज़ के बगैर तो परिंदों के परों को भी जंक लग जाती है 
और अगर यूँ ही पड़ा रहा तो लग जाएगी जंक तुझे भी

कभी सन्नाटे में आसमान कि तरफ देख 
क्या तुझे नहीं सुनाई पड़ती वो आवाजें, जो जाने कहाँ से आती हैं?
चाँद के आस-पास जो नूर बिखरा पड़ा है, शायद वहां से,
या फिर इन सितारों से, या दूर कहीं वीरानों से,
ये आवाज़े हैं जो खींचती है इस दिल को 
और तब ये दिल खींचता है मुझको 
कभी कहता कि चल मुसाफिर 
चल के बैठे दरिया के किनारे और करें कुछ बातें
पर थोड़ी ही देर बाद कहता नहीं, रास्ता गलत चुना
चल चलके भटकते हैं दश्त के वीरानों में, पर वहाँ सुकुन कहाँ?
या चल रात में तारों को देखते हैं, शायद इन्हीं में कहीं मंजिल हो

कभी जब बरसात में भीगा-भीगा सा समां हो 
और दरख्तों के पत्तों से टपक रही हो कुछ बूँदे
जैसे ज़मीन पर दस्तक दे रहीं हो,
और अगर रात में हो बरसात और चाँद झाँक रहा हो बादलों में से  
चाँदनी कि चादर ने ढक लिया हो पूरे समां को 
और तब कहीं से सुनाई पड़े एक संगीत 
जो रूह को अन्दर तक भिगो जाये
तब तन्हाई लपेट ले इस जिस्म को और ये हूक़ सी उठे कहीं से
कि काश कोई साथ होता इस वक़्त तो इस बारिश, इस चाँदनी 
हर चीज़ में मदहोशी सी होती,  तब फिर देता अचानक आवाज़

ए ! मुसाफिर कहाँ खो गए ? क्या मंजिल नहीं पानी?
पहले चल के मंजिल को ढूंढेंगे, पर रास्ते में ठिठकना नहीं
साथी कि तलाश में रहे तो मंजिल भी जाएगी
और रास्ते से भटकने कि तोहमत भी लग जाएगी 
अँधेरे में रहकर पहले रौशनी कि तलाश करो

मैं कहूँ इससे कि अगर रौशनी मिल जाये 
तो तू ठहर जायेगा, मिलेगा सुकूं तुझे?
नहीं...जवाब देगा सुकूं इंसान के लिए नहीं बना 
वो सिर्फ एक जगह मिलता है और वो है मंज़िल
चल उठ मुसाफिर और चल तलाश में मंज़िल की
परिंदे कभी नहीं रुकते, क्योंकि 
परवाज़, परवाज़ और परवाज़, ये परिंदों का मुक़द्दर है
ये परिंदों की जिंदगी है इसमें रिश्तों की बेड़ियाँ मत डाल 

मैं कहूँ की अगर परिंदों को भी हमसफ़र की ज़रूरत हो तो?
तो कहेगा की अगर सागर पर परवाज़ कर रहे हो 
तो क्या गहरे नीले पानी की सतह पर हमसफ़र को ढूंढोगे?

हमसफ़र वहीँ है जहाँ मंज़िल है 
जहाँ मंज़िल नहीं वहाँ रास्ता नहीं
जहाँ रास्ता नहीं वहाँ सफ़र नहीं
जब सफ़र नहीं तो हमसफ़र कैसा?

तोड़ दो साड़ी बेड़ियाँ और उठो मुसाफिर
आओ निकल पड़े इस सफ़र पर बगैर हमसफ़र के
ढूँढने से कभी न कभी तो मिल ही जाएगी मंज़िल भी
             

34 टिप्‍पणियां:

  1. कर्म पथ पर चलना ही जीवन है....
    दर्शन से ओतप्रोत रचना...
    खूबसूरत नज़्म....
    साभार....





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  2. आओ निकल पड़े इस सफ़र पर बगैर हमसफ़र के
    ढूँढने से कभी न कभी तो मिल ही जाएगी मंज़िल भी,,,


    बहुत उम्दा अभिव्यक्ति,,,


    Recent Post: सर्वोत्तम कृषक पुरस्कार,

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  3. साथ तो बस स्वयं के आत्मविश्वास का काफी है .... बेहतरीन रचना और विचार

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  4. बाप रे इतनी लंबी कविता....आज क्या सारा दिल ही उड़ेल दिया ब्लॉग पर :-)खैर होता है कभी-कभी ऐसा भी सभी के साथ मगर वो कहते हैं न परों से कुछ नहीं होता हौंसलों से उड़ान होती है।

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया पल्लवी जी.....सही कहाँ हौसला ज़रूरी है 'पर' होने भी तो ज़रूरी हैं.......कई बार यूँ भी जज़्बात एक साथ उमड़ पड़ते हैं :-)

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  5. बहुत खूबसूरत नज़्म इमरान भाई. सारे एहसास बहुत खूबसूरती से बांधे हैं नज़्म में. परवाज़ परिंदों का मुकद्दर है और शायद तड़पना दिल के लिए. कैफ़ी साब का शेर याद आ रहा है मुझे -

    इंसा के ख्वाहिशों की कोई इन्तेहा नहीं
    दो गज जमीन चाहिए दो गज कफ़न के बाद

    वो भी सराहने लगे अरबाब-ऐ-फन के बाद
    दाद-ऐ-सुखन मिली मुझे तर्क-ऐ-सुखन के बाद

    दीवानावार चाँद के आगे निकल गए
    ठहरा न मेरा दिल कहीं तुम्हारे अंजुमन के बाद

    अगर पढ़ा नहीं हो अभी तक तो कभी उनकी किताब आवारा-सजदे पढ़िए जरूर. बहुत लुत्फ़ आएगा.

    एक छोटा सा सवाल. जंक से आपका अभिप्राय जंग तो नहीं ?

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया निहार भाई .......'जंक' का ही प्रयोग किया है मैंने जो लोहे में लग जाती है अगर उसका इस्तेमाल न किया जाए.....मुझे लगा इसको यूँ ही लिखेंगे अगर कुछ गलत हो तो ज़रूर बताएं.......कैफ़ी साहब की ग़ज़ल बेहद उम्दा है....आवारा सजदे का नाम तो सुना है पहला मौका लगते ही ज़रूर पढूँगा।

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  6. बधाई हो आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति आज के ब्लॉग बुलेटिन पर प्रकशित की गई है | सूचनार्थ धन्यवाद |

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया तुषार जी......जज़्बात की पोस्ट को ब्लॉग बुलेटिन में शामिल करने का ।

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  7. एक सरल मन में उठते सारे सहज भावों को समेट लिया है , सुन्दर शब्द -यात्रा ..सुन्दर परिणिति..अति सुन्दर लगी.

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया अमृता जी......आपके शब्द एक नया उत्साह देते हैं ।

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  8. Khud ki,dil ki aur manjil ki jab baat ho to padhna sukhad hi lagta h aur fir jab aapki kalam bol rhi ho to baat hi aur...
    Haan,bada to likha h par pathniya hai..

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  9. मन के भावों को सुन्दर शब्द दिए हैं आपने इमरान जी ... पर कहाँ सच हो पाती हैं ऐसी बातें ... मजबूरियाँ, कुछ बेड़ियाँ कहाँ निकलने देती हैं समाज के बंधनों से ... जीवन भटक के रह जाता है ... पर ये भी सच है मंजिल वही पाते हैं जो निकल पड़ते हैं अकेले ही ...

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया दिगंबर जी.........बहुत मुश्किल होता है ये पर यही जीवन का लक्ष्य भी है ।

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  10. सरल सहज शब्दों में जीवन के गहन प्रश्न..जीवन में कोई हमसफर हो तो यात्रा सुखद हो जाती है, एकदूसरे से प्रेरणा भी मिलती है..शुभकामनाएँ !

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  11. बेहद खूबसूरत भाव हैं इमरान भाई ... एकदम दिल की सच्ची, बेबाक अभिव्यक्ति .. ऐसी भावनाएं अक्सर मेरे मन में भी आती हैं ... आपके ये जज़्बात वाकई दिल से दिल तक के हैं!!
    सादर
    मधुरेश

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  12. बहुत प्रभावी रचना...अंतस को छू गयी...

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  13. जब रूहानी यार का साथ हो
    हाथों में उसका हाथ हो
    ऐसे हमसफ़र के साथ
    चलना ही सकून है
    मंज़िल भी आएगी !!
    मिलेगी नई राह !!

    बहुत उम्दा !!!

    नई पोस्ट

    अब की होली
    मैं जोगन तेरी होली !!

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  14. दिल में बसे ज़ज्बातों से से खुद की जदोजहद कभी समर्पण कभी रोष मन के भों को बयाँ करने में सफल रचना अच्छी बन पड़ी सुन्दर रचना |

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  15. बेनामीअप्रैल 02, 2013

    bahut bahut khoob imranji...
    chalte rhne ka naam hi zindgi hein,is kashmakas ke saath,
    excellent.....

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  16. hmmm........hmesha ki trhaa bahut bdhiya...aur shukriyaa iska link dene ke liye..........................hmmm.........sach me smjh nhi aataa kabhi kabhi..ye dil chahta he kya............gulzar ji ka likha yaad aataa...o dil bajaare

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  17. तू ही है मौला
    तू ही है काबा मेरा
    जाऊँ कहाँ मैं
    ऐसा महसूस हुआ
    एक शब्द साड़ी
    को सारी कर दो ...

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जो दे उसका भी भला....जो न दे उसका भी भला...